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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)

अयोध्याकाण्ड - रामचरितमानस

(1)

चौ0 - भा सब के मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रान प्रिय भे सबही के॥
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई॥1॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सील सनेहु सराहत जाहीं॥2॥
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कल साजहि साजू॥
जेहिं राखहि रहु घर रखवारी सो जानइ जनु गरदनि मारी॥3॥
कोउ कह रहन कहिउ नहिं काहू को न चहइ जग जीवन लाहू॥4॥

दो0- जरउ सो सेपति सदन सुख सुहृद मातु पितु भाइ।
सन मुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥ 85॥

प्रसंग - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस' के 'अयोध्याकाण्ड' से उद्धृत की गयी हैं। श्रीराम के वनगमन के पश्चात् जब दशरथ जी का स्वर्गवास हो जाता है और भरत ननिहाल से लौटकर आते हैं, तब उन्हें अत्यधिक संताप और आत्मग्लानि होती है। उन्हें राजगद्दी पर बैठना तो स्वीकार ही नहीं, श्रीराम के दर्शन की अभिलाषा से उनका हृदय वन में उन्हीं के पास दौड़ जाना चाहता है। भरत के इस प्रस्ताव को सभी सहर्ष स्वीकार करते हैं और वन चलने की तैयारी करने लगते हैं। सभी को एक सहारा मिल जाता है।

व्याख्या - श्रीराम के पास वन चलने के समाचार से सभी लोग आनंदित हो उठे, मानो बादलों की गर्जना सुनकर पपीहा और मोर विभोर हो रहे हों। राम के बिना अब अयोध्या में रह ही क्या गया था, वह सूनी हो गई थीं, सर्वत्र अंधकार पसर गया था। जहाँ राम है, वहीं अयोध्या है। इसी से राम की वन रूपी अयोध्या में जाने के लिए उत्सुक हैं, प्रफुल्लित हैं। प्रातःकाल चलने का निर्णय सुनकर सभी भरत जी को चाहने लगे हैं जो अब तक कैकेयी-नंदन भरत को संदेह की दृष्टि से देखते थे, वे ही अब उनकी निश्छल, निष्कलुष, स्नेह-सिक्त वाणी को सुनकर, प्रेम में गद्गद् हो गये हैं। उनके लिए 'धन्य भरत जीवन जग माहीं। कहते हुए उनके सील- स्नेह की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं और धन्य होते हैं। उन्हें तथा मुनि वशिष्ठ को नत- मस्तक होकर घर से विदा होने के लिए जाते हैं। सभी की राय में यह बहुत बड़ा कार्य था कि सबको राम के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा। अगर कोई किसी से घर की रखवाली करने हेतु रहने के लिए कहता है। तो उसी को लगता है जैसे मेरा अहित हो गया अर्थात् कोई ऐसे सौभाग्य को खोना नहीं चाहता। इसीलिए कोई किसी से रहने के लिए नहीं कहता। सभी राम का दर्शन कर जीवन का लाभ लेने को उत्सुक हैं। राम के दर्शन से बढ़कर संसार का कौन-सा सुख हो सकता है अर्थात् कोई नहीं? तभी तो संपति, घर- महल, मित्र, माता-पिता - भाई तथा अन्य सम्बन्धी सभी जलकर विनष्ट हो जायें, जो श्रीराम के चरणों के दर्शन में बाधक बने, प्रसन्नतापूर्वक साधक साहयक न बनें।

विशेष -
1- अलंकार प्रथम अर्द्धाली में 'जनु' के प्रयोग से उत्प्रेक्षा अलंकार है। चौथी अर्द्धाली में सीलु सनेह सराहत' में अनुप्रास अलंकार हैं।
2- सम्पूर्ण अयोध्या के प्रस्थान के कारण 'बड़ काज' का सार्थक प्रयोग है।
3- अंतिम दोहे में श्रीराम के दर्शन की पिपासा सर्वोपरि है और वही जीवन की सार्थकता है। यहाँ संसार के प्रति अनासक्ति का भाव स्पष्ट है।

 

(2)

चौ0 - राम दरस बस सब नरनारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहि जाहीं॥1॥
देखि सनेह लोग अनुरागे। उतरि चले हम गय रथ त्यागे॥
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥2॥
तात चढ़उ रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारू दुखारी॥
तुम्हरे चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहि मग जोगू॥3॥
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोऊ भाई।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥4॥

दो0 - पथ अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम व्रत परिहरि भूष न लोग॥ 88॥

प्रसंग - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ गोस्वामी दास कृत 'रामचरितमानस' के 'अयोध्याकाण्ड' से उद्धृत की गयी हैं। चित्रकूट की तरफ गमन करते हुए सभी नर-नारी राम के दर्शन हेतु अत्यधिक व्यग्र और उतावले हैं। श्री राम जानकी के जंगल में वनवासी की तरह रहने की अनुभूति से भरत को बड़ी वेदना होती है, उन्हें वाहन पर सवार होकर चलना अच्छा नहीं लगता इसी से पैदल चलने लगते हैं। सभी उनका अनुसरण करते हैं। अन्त में कौशल्या माता के समझाने पर उनकी आज्ञा का पालन करते हैं।

व्याख्या - रास्ते में चलते हुए सभी स्त्री-पुरुषों को श्रीराम के दर्शन की लालसा लगी है कि जल्दी से चित्रकूट पहुँच जायें और राम को नेत्र भरकर निहार लें, तृप्त हो जायें। आखिर राम ही तो हमारे जीवन-धन हैं। क्षण-क्षण में उन्हें पग-पग पर चित्रकूट दीख पड़ रहा है और वे अधिक उत्साह से तीव्रता से गतिमान हो रहे हैं। राम के प्रेम में विभोर होकर भरत जी विचार करने लगते हैं कि वे (राम) वनवासी की तरह रह रहे हैं और हम वाहनों पर सवार होकर उनके पास पहुँच रहें हैं। बस, उन्होंने भी वाहन त्याग दिये और रास्ते पर पैदल चलने लगे, क्योंकि सेवक-धर्म के निर्वाह के लिए तो सिर के बल जाना उचित है, परन्तु इससे स्थिति ही बदल गई। भरत शत्रुघन को नंगे पैर पैदल देखकर सभी नर-नारियों ने अपने-अपने वाहन क्याग दिये, जब प्यारे भरत ही पैदल चल रहे हैं तो हम क्यों न चलें। सभी के प्रेम में अभिभूत हो गये। आखिर चित्रकूट की यह यात्रा प्रेम यात्रा ही तो हैं और प्रेम का सर्वस्व क्याग की अपेक्षा रखता है- 'सीस उतारे भुइ धरै तप पैठै घर मांहि॥ सभी हाथी, घोड़ा, रथ और पालकियों से उतर भरत का अनुसरण करने लगे हैं और बड़े प्रसन्न हैं परन्तु इस दृश्य को माता कौशल्या देख न सकी तुरन्त अपनी पालकी को भरत के पास लाकर खड़ा कर दिया और धीरे से बड़ी कोमल वाणी में कहने लगीं हे वत्स, माता तुम्हारी बलैया लेती हैं, तुम रथ पर चढ़ जाओ तुम्हारे साथ पैदल चलने से सारा परिवेश दुःखी होगा। एक तो राम के वियोग में सभी पहले से ही जर्जर तन हो गये हैं, फिर वन का कठोर पैदल मार्ग जलने के योग्य नहीं हैं। तुरन्त माता की आज्ञा को शिरोधार्य कर और चरणों में नत मस्तक होकर वाहन पर चढ़ गये। इस प्रकार सभी ने रास्ता तय करते हुए प्रथम मुकाम तमसा पर और दूसरा निवास गोमती के किनारे किया।

राम के दर्शन की लालसा में न किसी को शरीर की चिंता है और न भोजन-शयन की कोई दूध का ही आहार लेता है तो कोई फलाहार में ही तृप्त हो जाते हैं और कुछेक तो रात्रि में ही एक बार भोजन करके सो जाते हैं। इस प्रकार राम के लिए सभी ने संसार के सुखों भोग-विलास तथा विभूषणों आदि सभी को त्यागकर एक प्रकार से व्रत ले रखा है। राम को देख लेने पर जैसे उनको सब कुछ मिल जायेगा। राम ही उनके सर्वस्व हैं।

विशेष
-
1- अलंकार - प्रथम अर्द्धाली में 'जनु' वाचक शब्द के प्रयोग से उत्प्रेक्षा अलंकार हैं। नर-नारियों के हृदय की व्यग्रता तथा उतावलेपन की बड़ी सटीक व्यंजना इसके सहारे बन पड़ी हैं।
2- दूसरी पंक्ति में भरत की अनन्य राम-भक्ति और सेवक-धर्म स्पष्टतः व्यंजित हैं।
3- माता कौशल्या की भरत के प्रति और सभी नर-नारियों के प्रति हृदय की उदारता सचमुच राजमाता का आदर्श हैं।
4- 'सिर धरि वचन' में शिरोधार्य करना मुहावरे का अच्छा निर्वाह हुआ है।
5- राम के लिए सर्वस्वत्याग की भावना की सुन्दर अभिव्यक्ति दोहे में अवलोकनीय हैं।

(3)

सई तीर बीस चले बिहाने। श्रृगेबरपुर सब निअराने॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयं विचार करइ सविषादा॥
कारन कवन भरतु वन जाहीं। है कुछ कपट भाउ मन माहीं॥
जौ पै जियँ न होति कुटिलाई तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥
जानहि सानुज समहि मारी। करउ अकंटक राजु सुखारी॥
भरत न राजनीति उर आनी। तव कलंकु अब जीवन हानि॥
सकल सुरासुर जुरहि जुहारा। समहिं समर न जीत निहारा।
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहि विष बेलि अमिअ फल फरहीं।
दोहा - अस विचारि गुहँ ग्याति सन, कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु वोरहु तरनि, कीजिअ घाटा रोहु॥

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड से उद्घृत है। यह प्रसंग निषादराज गुह के भ्रम से सम्बन्धित है। भ्रमपूर्ण स्थिति खड़ी करके रचनाकार ने एक विशेष प्रकार के चमत्कार कौशल व्यक्त करने की चेष्टा की है।

व्याख्या भरत रात भर नदी के तट पर निवास करके प्रातः होते ही वहाँ से चल दिये और श्रृंगबेरपुर के समीप जा पहुँचे। उनके आने का समाचार सुनकर निषादराज हृदय में दुखी होने लगा। वह दुखपूर्वक हृदय में विचार करता है कि क्या कारण है भरत वन में जा रहे हैं। उनके मन में कुछ कपट अवश्य है। यदि ऐसा न होता तो इनके साथ में सेना क्यों होती। उन्होंने सोचा होगा कि छोटे भाई और राम को मार करके वे सुखपूर्वक राज्य कर सकेंगे। भरत ने राजनीति की दृष्टि से इस पर विचार नहीं किया कि अभी तो (भाई को वन में भिजवाने में तो) कलंक ही लगा है। अब (मारने आये हैं तो) जीवन से भी हाथ धोना पड़ेगा। सारे देवता और राक्षस वीर इकट्ठे हो जायें, पर राम को समर में कौन जीत सकता है। भरत जो ऐसा कर रहे हैं उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। विष की बेल पर अमृत फल नहीं लगते। निषादराज ने सारी परिस्थिति को देखकर और समझकर अपनी जाति वालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ। नावों को अपने अधिकार में लेकर उन्हें डुबो दो। इस प्रकार सभी घाटों को रोक दो।

(4)

चौ0- राम प्रताप नाथ बल तोरे। कराह कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जावत पाउ न पाछे घरहीं। रूड मुंडमय भेदिनि करहीं॥1॥
दीख निषाद नाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ समुनिअन्ह खेत सुहाए॥2॥
बूढ़ एक कह सगुन बिचारी। भरतहिं मिलिअ न होइहि रारी।
रामहिं भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥3॥
सुन गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा ॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित जानि बिनु जूझें॥4॥

दो0- गहहु घाट भट समिति सब लेउँ मरम मिलि जाइ।

बूझ मित्र अरिमध्य गति तस तब करिहऊँ आइ॥12॥

प्रसंग - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास प्रणीत 'श्रीरामचरितमानस' के 'अयोध्याकाण्ड' से उद्धृत की गयी हैं। वीरों का उत्साह देखकर निषाद युद्ध का ढोल बजाने को कहता है और तभी बाँई ओर से छींक होती हैं। परिवेश बदलता है और निषाद भरत जी से मिलने आता है। निषाद के रन- बाँकुरे कहने लगे।

व्याख्या - हे नाथ, श्रीराम के प्रताप से हम भरत की सेना को समाप्त ही नहीं कर देंगे, कोई वीर देखने को भी नहीं मिलेगा। हम जीतेजी युद्ध से मुँह नहीं मोड़ेगें और जब तक प्राण रहेंगे, युद्ध में डटे रहेंगे। सारी रणभूमि को दुश्मनों के सिर और घड़ों से भर देगें। वीरों का ऐसा साहस और अदम्य उत्साह देखकर निषादराज को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने युद्ध के ढ़ोल बजाने का आदेश दिया। परन्तु इतना कहते ही बाई ओर से किसी ने छींका। शकुन विचार करने वालों ने भरत से पहले मिल लिया जाय, युद्ध की संभावना है नहीं। भरत जी श्रीराम को मनाने जा रहे हैं। शकुन से ऐसा लग रहा है। उनसे तुम्हारा विरोध नहीं होगा। वृद्ध के वचनों को सुनकर निषाद ने उचित ही समझा। बिना विचारे कोई काम करना अच्छा नहीं होता, ऐसा करके मूर्ख बाद में पछताते हैं। भरत के शील स्वभाव को समझे बिना उनसे युद्ध करना अनुचित ही होगा तथा हमारी ही हानि होगी।

अतः तुम सब लोग मिलकर घाटों को रोक लो मैं भरत जी के पास जाकर उनका भेद जानने की चेष्टा करता हूँ। उनके हृदय में मित्रता का भाव है अथवा शत्रुता का या फिर उदासीनता का इस सत्य को जानकर ही मैं अनुकूल प्रबन्ध करूँगा, भावी रणनीति या मित्र-नीति का निर्धारण करूँगा। 

विशेष -
1- अलंकार - बल-बिनु, करहिं-कटकु पाउन्या छै, सगुनि-सुहाए, बूढ़-विचार, हित-हानि, मरम-मिल, तस-तब में अनुप्रास अलंकार हैं।
2- बांई ओर से छींक होना लोक में शुभ सकुन का सूचक माना जाता है। अतः लोक-संस्कृति का संस्पर्श स्पष्ट है।
3- लोक में कहावत प्रसिद्ध है कयौ बड़े को कीजै, सिख बारे की लीजै' अर्थात् वृद्ध जनों के आदेश का पालन करना तथा छोटों की सलाह को स्वीकार करना अच्छा होता है। यहाँ पर भी बूढ़े की आज्ञा मानने का संकेत हैं।
4- बिना विचार के सोचे-समझे बिना किसी कार्य को जोश में कर डालना हितकारी नहीं होता, इस मनोवैज्ञानिक सत्य की ओर स्पष्टतः इंगित किया गया है।
5- बूझि मित्र .... करिहउँ आइ में निषाद का लोक-सम्मत होना उसकी बुद्धिमत्ता की परिचायक है।

 

(5)

भेटत भरत ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहि प्रेम कै रीती॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहिं तेहि बरिसहिं फूला॥
लोक बेद सब भाँतिहि नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
राम राम कहि जे जमुहाही तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥
करमनास जलु सिरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहीं धरई।
उल्टा नाम जपत जगु जाना। बालमीक भे ब्रह्मा समाना।
दो.- स्वपच सबर खस जमन जड़ पाँवर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥

शब्दार्थ - सिहाहि = सराहना करना, बड़ाई करना। धुनि = ध्वनि। सराहि = सराहना करना। नीच = नीच। जासु = जिसकी छाँह = छाय। अंक = आलिंगन। परिपूरित = परिपूर्ण। जमुहाहीं = जम्हाई, उबासी समुहाही = सामने अति। एहितो = इसो तो जगु = जगत। पावन = पवित्र। करमनास = कर्मनाशा नदी का नाम। दरई = गिरता है। धरई = धारण करना। स्वपच = चांडाल, खस = खसिया। जमन = यवन। पावर = पामर, नीच पावन = पवित्र।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड से उद्धृत है। इसमें कवि को निषाद के दृष्टान्त के माध्यम से अपनी भक्ति का प्रतिपादन करने का अवसर मिला है। वह पूरी सजगता के साथ इस अवसर का पूर्णतः प्रयोग करता है।

व्याख्या - भरत जी गुह को अत्यन्त प्रेम से गले लगाकर भेंटते हैं। इस प्रेम की रीति की सब लोग ईर्ष्यापूर्वक प्रशंसा करते हैं। मंगल की मूल 'धन्य-धन्य कर देवता इस मिलन की सराहना करते हुए फूल बरसाते हैं। वे कहते हैं जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकार का नीचा माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना पड़ता है, उसी निषाद से अंकवार भरकर हृदय से चिपटाकर श्रीरामचंद्र जी के छोटे भाई भरतजी आनन्द और प्रेमवश शरीर मे पुलकावली से परिपूर्ण होकर मिल रहे हैं। आलस्य में भी जिनके मुंह से राम नाम का उच्चारण हो जाता है, पाप-समूह उनके सामने नहीं आते। फिर इस गुहा को तो स्वयं श्रीरामचंद्र जी ने हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत को पवित्र करने वाला बना दिया। कर्मनाशा नदी का जल गंगा जी में मिल जाता है, तब कहिए, उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता? जगत जानता है कि उल्टा नाम (मरा-मरा जपते-जपते बाल्मीकि जी ब्रह्मा के समान हो गये।

विशेष -

1 अलंकार (क) 'धन्य-धन्य धुनि' में पुनरुक्तिप्रकाश और वृत्यानुप्रास, अन्यत्र अनुप्रास, करमनास ----- विख्यात में दृष्टान्त।

 

(6)

चौ0 - झलका झलकत पायन्ह कै से पंकज कोस ओस कन जैसे॥
भरत पयोदहिं आए आजू। भयउ दुखित मुनि सकल समाजू॥
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनहिं आए॥
सबिधि सितासित नीर नहासे दिए दान महिसुर सनमाने॥
देखत स्यामल धवल हिलोरे। पुलकि सरीर भरत करजोरे॥
सकल काम प्रद तीरथ राऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥
मागऊँ भीख त्यागि निज धरमू॥ आरत काह न करइ कुकरमू।
अस जिय जानि सुजान सुदानी सफल करहिं जग जाचक बानी॥

दो0 - अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निर बान।
जनम जनम रति रामपद यह बरदानु न आ
न।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड से अवतरित हैं। इनमें भरह प्रयागराज पहुंचकर त्रिवेणी में स्नान करते हैं तथा त्रिवेणी श्री राम के चरणों का आशीष प्राप्त करने की याचना करते हैं।

व्याख्या - नंगे पैर चलने के कारण भरत जी के पैरों में छाले पड़ गए हैं और वे छाले उनके पैरों में कमल - कोष पर ओस की बूँद के समान प्रतीत हो रहे हैं। भरत की ऐसी अवस्था देखकर सभी लोग अत्यन्त दुःखी हो गए किन्तु भरत जी राम के मिलन के प्रेम से सभी कुछ भूल गए हैं। जब भरत जी को यह ज्ञात हुआ कि सभी लोगों ने स्नानादि कर लिया है तो उन्होंने प्रयाग की त्रिवेणी को प्रणाम किया और गंगा जमुना के श्वेत - श्याम जल में स्नान करके विप्रों को दान दिया। गंगा-यमुना की श्वेत स्याम लहरों को देखकर भरत के मन में आनन्द भर आया और वे पुलकित हो कर त्रिवेणी की हाथ जोड़ कर वन्दना करने लगे। भरत जी कहने लगे हे तीर्थराज प्रयाग, आपके प्रभाव को वेदों में भी बताया गया है, सम्पूर्ण जगत जानता है कि आप सांसारिक प्राणियों की समस्त मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ हैं। अतः मैं भी अपने क्षत्रिय धर्म को त्याग कर आपसे एक भीख माँगता हूँ, आपके सामने भिखारी रूप में खड़ा हूँ क्योंकि मैं अन्तग्लानि से आहत हूँ। मुझे इस बात का अतीव कष्ट है कि मेरे कारण ही भ्राता श्रीराम व जानकी को वन में अनेक कष्ट उठाने पड़ रहे हैं। आप मेरे हृदय की पीड़ा को समझकर मेरे अनुकूल वरदान दीजिए क्योंकि सज्जन लोग दान देते समय भिखारी की वाणी से अनुरूप ही दान देते हैं आप भी वैसा ही करिए। मैं आपसे धन-सम्पदा, सांसारिक भोग अथवा धर्म की याचना नहीं कर रहा हूँ और न ही मुझे मोक्ष की कामना है। मैं जनम-जनम अर्थात् प्रत्येक जन्म में श्री राम के चरणों में प्रेम की प्राप्ति की याचना कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त मेरी कोई दूसरी कामना नहीं है।

 

(7)

चौ0- कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेग मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥1॥
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तप्पस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखनु राम सिय दरसनु पावा॥2॥
तेहि फलकर फलु दरस तुम्हारा सहित पयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन मुनि भयऊ॥3॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥4॥

दो0- पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरूह नैन।
करि प्रनागु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥ 210॥

प्रसंग - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस' के 'अयोध्याकाण्ड' से उधृत की गयी हैं। मुनि-मंडली में बैठे हुए भारद्वाज जी भरत के यश का बखान करते हुए प्रसन्न हो रहे हैं।

व्याख्या जो यश संसार में भागीरथ जी को गंगा जी को लाने पर मिला और दशरथ को अपने गुणों से मिला, उनसे भी आगे बढ़कर तुमने अपने यश रूपी चन्द्रमा को उक्पन्न किया है, जिसमें श्रीराम का प्रेम ही हिरन के चिन्ह के रूप में सदा बसता है। तुम व्यर्थ ही हृदय में ग्लानि का अनुभव कह रहे हो। फिर तुम्हारे पास तो श्रीराम का प्रेम रूपी पारसमणि है, फिर भी दरिद्रता से भयभीत होना उचित नहीं। हे भरत, हम तो जंगल के उदासीन तपस्वी है। किसी से न कोई इच्छा है और न कामना। कोई प्रयोजन ही नहीं। हमें तो राम, लक्ष्मण और सीता जी के दर्शन का सौभाग्य सब साधनों का उत्तम फल के रूप में मिला है और उस फल का सुफल आपका दर्शन है, यह हमारा सौभाग्य ही है। आप धन्य है, आपने अपने यश से संसार को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनिवर प्रेम में निमग्न हो गये, विभोर होकर मौन हो गये। अन्य सभी मुनिजन बड़े प्रसन्न हुए और साधु-साधु कहते हुए देवताओं ने नभ से पुष्पों की वर्षा की। इस परिवेश को देखकर भरत जी भी प्रेम में डूब गये।

भरत जी का शरीर पुलकित हो गया, मन में सियाराम की विभूति उभर आई और नेत्र-कमलों में प्रेमाश्रु छलछला गये। ऐसी प्रेम मग्न स्थिति में वे मुनि-मंडली को प्रणाम करके गद्गद वचन कहने लगे।

विशेष-

(1) - अलंकार कीरति विधु तथा राम- प्रेम को रूपक, तात ----- पाये में दृष्टान्त, सब साधन हमारा, साधु सुर में वृत्यानुप्रास, अनुप्रास, पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार है।
(2) 'तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा' में भरत में प्रेम की अत्यधिक प्रशंसा व्यंजित है।
(3) भरत जी की विनम्रता अवलोकनीय है।

 

(8)

चौ0- मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोक पति लोका॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥1॥
सासन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। विमल जलासम विविध विधाना॥2॥
असन पान सुचि अमिअ अमीसे। देखि लोग सकुचात जमी से।
सुर सुरभी सुर तरू सबहीं कें। लखि अभिलाषु सुरेस सचीकें॥3॥
रितु बसंत बह त्रिविध बमारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।
स्रक चंदन बनिवादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा ॥4॥

दो0 - संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निशि आश्रम पिजराँ राखे भा मिनुसार॥ 215॥

प्रसंग - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस' के 'अयोध्याकाण्ड' से उधृत की गयी हैं। मुनि भारद्वाज की सत्कार की व्यवस्था को देखकर भरत जी आश्चर्य में पड़ गये और मन ही मन विचार कर रहें हैं।

व्याख्या - मुनि के आदर-सत्कार की सुव्यवस्था को देखकर भरत जी आश्चर्य में डूब गये। उसके सामने उन्हें इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि के भी लोक तुच्छ लगने लगे। वहाँ की सुख सामग्री का तो बखान ही नहीं किया जा सकता। जिसे देखकर बड़े-बड़े ज्ञानी भी वैराग्य भूल जाते हैं। वहाँ सभी प्रकार के आसन, सयन, वस्त्र, वन बगीचे, पक्षी सुरभि युक्त पुष्प, अमृत के समान स्वादिष्ट फल, नदी, तालाब, बाबरी आदि सभी की समुचित व्यवस्था की गई थी। सुन्दर अमृत के समान खान-पान के पदार्थों को देखकर संयमी पुरुष भी सकुचा रहे थे। उन्हें चखने की उनकी भी इच्छा हो रही थी। सभी डेरों में कल्पवृक्ष तथा कामधेनु थी। इन्द्र और इंद्राणी भी उनकी अभिलाषा करते थे। बंसत ऋतु का मन भावन वातावरण है। शीतल मंद सुगन्धित बयार बह रही है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सभी को सुलभ हैं। माला, चन्दन तथा स्त्रियों के सभी सुखों से पूर्ण हैं। सभी लोगों को एक साथ आनंद और विस्मय की अनुभूति हो रही है। मुनि के तप के वैभव को देखकर सभी लोग प्रसन्न हैं। किन्तु विस्मय में इसलिए हैं कि कहीं भोग में फँसकर श्रीराम को न भूल जायें। हमारा मन इनमें आसक्त न हो जाय।

सम्पत्ति (भोग-विलास की सामग्री) चकवी हैं और भरत जी चकवा हैं। मुनि की आज्ञा का यह खेल है, जिसने आश्रम रूपी पिंजरे में दोनों को बन्द कर रखा है, लेकिन ऐसे ही प्रातः काल हो गया। भोग विलास की सामग्रियों के रात भर निकट रहने पर भी भरत जी के मन से उनका स्पर्श तक नहीं किया। वे अधूते ही बने रहे और प्रातः काल हो गया।

विशेष-
(1) अंलकार - बन ------ बिहण में वृत्यानुप्रास, अमिअ अमी से' में उपमा, मुनि .. लोका से प्रतीप तथा दोहे में साग रूपक अंलकार है।
(2) भरत अपने संयम तथा चरित्रिक बल में खरे उतरे, इस सत्य का निरूपण रूपक के माध्यम से किया गया है।
(3) सचमुच मुनि की तपस्या का वैभव अनूठा है।

 

(9)

नव बिधु बिमल पात जस तोरा रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन-दिन दूना।
कोक तिलोक प्रीति असि करही। प्रभु प्रताप रबि छबिहिन हरिही।
निसि दिन सुखद सदा कब काहूँ। ग्रसिहि न कैकई करतबु राहू।
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुरु अवमान दोष नहिं दूषा।
राम भगत अब अमिों अघाहूँ। कीन्हे हु सुलभ सुधा बहुधा हूँ।

शब्दार्थ - विधु = चंद्रमा। किंकर = सेवक। अथइहिं = अस्त होना। करतबु = कार्य।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड से उद्धृत है। सांगरूपक अलंकार के माध्यम से कवि भरत की चरित्र निष्ठा एवं प्रेमाशक्ति को प्रस्तुत रूप में स्वीकार करके 'विमल विधु' के विविध अंगों के सादृश्योध्यवसाय के द्वारा पोषण करता है। भरत की गम्भीर प्रेमासक्ति का चित्रण करता हुआ कवि अन्त में निष्कर्ष निकालता है कि श्रीराम का अपहरण इस लोक के लिए एक अपूर्व घटना है। इसके इस अपहरण को प्रकाशित करने का श्रेय भरत के चरित्र को है।

व्याख्या - हे भरत ! तुम्हारा यश रूपी नवल चन्द्रमा राम के सेवक रूपी कुमुद और चकोरों के लिए सदैव और सर्वत्र सुखदाई है। वह सदैव उदति रहेगा और कभी ग्रस्त नहीं होगा। वह संसार के प्रकाश से नहीं घटेगा, अपितु दिन-प्रतिदिन दूना होगा। इसको त्रिलोक के रामभक्त रूपी चकवे प्रेम करेंगे और श्रीराम के प्रताप का सूर्य भी इसकी छवि को क्षीण न कर सकेगा अर्थात् हे भरत ! तुम्हारी प्रेम और भक्ति का प्रचार राम से भी अधिक होगा। तुम्हारा यश रूपी चंद्रमा सदैव ही सबके भक्ति का प्रचार राम से भी अधिक होगा। इसे कैकेयी का कर्त्तव्य रूपी राहू ग्रसित नहीं कर सकता। कैकेयी के कार्य से तुम्हारे यश पर आंच नहीं आयेगी। यह राम के प्रेम रूपी अमृत से इतना अधिक परिपूर्ण है कि बड़े से बड़ा दोष भी इसे दूषित नहीं कर सकता। तुम्हारे अमृतमय और रसमय चन्द्रमा ने सबके लिए अमृत सुलभ बना दिया है। सब अद्याकर उसका पान कर सकते हैं। तुम्हारे पूर्व पुरुष भागीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाये, जिनको स्मरण करने मात्र से समस्त सुमंगल छा जाते हैं। तुम्हारे पिता दशरथ के गुण-समूह तो वर्णन से परे हैं। उनसे अधिक संसार में और कुछ नहीं है।

तुम्हारे पिता दशरथ के स्नेह और संकोच के वशीभूत होकर राम अब प्रकृत हुए। जिन राम को शंकर ने कभी अपने ध्यान में अद्याकर नहीं देखा वे ही राम दशरथ के पुत्र और तुम्हारे भाई हैं।

विशेष -
1. इसमें भरतजी के यशस्वी चन्द्रमा का उल्लेख है।
अलंकार- 'नव विधु' में विमल यश को आरोप तथा 'रघुवर किंकर' में 'कुमुद-चकोर' का आरोप होने से रूपक, उदित सदा .......  दिन दिन दूना ! में व्यतिरेक, 'दिन दूना' में अनुप्रास पुनरुक्ति प्रकाश, 'कोक' में 'त्रिलोक' 'प्रभु प्रताप' में 'रवि' 'कैकेयी करतब' में 'राहु' सप्रेम में 'पियूष' का आरोप होने से रूपक यत्र तत्र अनुप्रास है।

 

(10)

तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई।
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥
मसक फेंक मकु मेरु उडाई। होइ न नृप मदु भरतहिं भाई।
लखन तुम्हारे सपथ पितु आना। सुचि सुबंध नहिं भरत समाना॥
सगुन खीरु अवगुन जलु जाता। मिलइ रचइ परपंचु विधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष विभागा॥
सगुन खीरु अवगुन जलु जाता। मिलइ रचइ परपंचु विधाता॥
मरत हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष विभागा॥।
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी।
कहत भरत गुनसील सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य खण्ड भक्तिकाल की रामभक्ति शाखा के प्रर्वतक कवि गोस्वामी तुलसीदास विरचित महाकाव्य 'रामचरितमानस' में 'भरत महिमा प्रसंग' से उद्धृत है।

प्रसंग - गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक ओर भरत की भक्ति का चित्रण किया है तो दूसरी ओर भगवान श्री राम का उनके प्रति अनन्य स्नेह (भ्रात प्रेम) का अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है। राम के प्रति भरत के हृदय की अति सरल, सहज एवं स्वाभाविक भक्ति अंकित है।

व्याख्या - गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि भरत के समान इस संसार में दूसरा कोई योगी, भ्रातृ प्रेमी, राजा दूसरा कोई नहीं है। जिस प्रकार मध्याह्न सूर्य की किरण समस्त जीव जंगम तक पहुँच जाती है उसी प्रकार भक्ति, विनय की भावना समस्त जीव में पहुँच जाने के बाद वह परम गति को प्राप्त का लेता है। संसार के समस्त जीवों में मद, अहंकार हो सकता है परन्तु भरत में क्षमा, धैर्य कभी भी घट नही सकता। पिता की आज्ञानुसार राम और लखन वनवास करते हैं वहीं भरत सन्यासी बाना पहनकर, राजभोग का त्याग कर नन्दीग्राम में आश्रम बनाकर अपने राजा से नीचे शयन कर अपार त्याग का परिचय देते हैं। अर्थात् भरत के त्याग के सम्मुख सब भाइयों का त्याग फीका है। हे तात! सगुण या अच्छे गुण रूपी दूध तथा अवगुण रूपी जल को मिलाकर विधाता ने इस संसार को रचा है। सूर्यवंश रूपी तालाब में हंस रूपी भरत ने जन्म लेकर गुण-दोषों को अलग-अलग कर दिया है।

उन्होंने गुण रूपी दूध को ग्रहण कर लिया है और अवगुण रूपी पानी को छोड़ दिया है। इस प्रकार अपने यश से संसार में उजाला किया है। भरत का गुण, शील और स्वभाव कहते-कहते राम प्रेमरूपी समुद्र में मग्न हो गये। रघुवर की ऐसी वाणी सुनकर और भरतजी पर उनका प्रेम देखकर देवता भी उनकी सराहना करते हैं कि राम के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है।

विशेष -

1. सूक्ष्ममयी भाषा का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
2. दृष्टान्त व वृत्यानुप्रास अलंकार है।

(11)

कीन्ह निमज्जुन तीरथ राजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत विनय बहु भाषी॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
राम सखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत चौपाई तुलसीदास द्वारा विरचित 'रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड से उद्धृत है।

प्रसंग - इन पंक्तियों में भरत जी का प्रयाग के संगम में नहाने का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - भरत जी ने तीर्थराज प्रयाग या त्रिवेणी में गोते लगा-लगाकर स्नान किया और फिर अपने समस्त समाज के साथ मुनि को सिर नवा कर प्रणाम किया। (उन्होंने ऋषि से चलने की आज्ञा माँगी।) ऋषि की आज्ञा और आशीर्वाद सिर पर धारण किये हुए उन्होंने ऋषि को दंडवत् प्रणाम करके बहुत विनती की। इसके पश्चात् वे रास्तों को अच्छी तरह जानने वाले पथ-प्रदर्शकों को अपने साथ लेकर चित्रकूट के रास्ते पर ध्यान लगाये हुए चल पड़े। वे राम सखा निषादराज के कंधे का सहारा लिए हुए ऐसे चल रहे हैं मानों प्रेम ही साकार होकर या शरीर धारण कर चल रहा हो उनके पैरों में न जूते हैं न उनके सिर पर छाया है। उनका प्रेम, नियम, व्रत धर्म सब छल-कपट रहित है। वे अपने मित्र से लक्ष्मण, राम और राम और सीता की कहानी पूछते है। उनके पूछने पर सखा भी बहुत ही कोमल वाणी में सब कुछ बताता चलता है।

विशेष -
(1) राम भक्त भरत के लिए प्रकृति ने स्वयं ही अपना कोमलरूप धारण कर लिया और जितना सुख वह उनको पहुँचा सकती थी उतना पहुँचाया।
(2) इनमें अनुप्रास, उत्प्रेक्षा तथा अत्युक्ति अलंकार है।

 

(12)

कीन्ह निमज्जुन तीरथ राजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें।
चले दंडवत विनय बहु भाषी॥ चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
राम सखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृ
दु बानी॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत चौपाई तुलसीदास द्वारा विरचित 'रामचरितमानस' के अयोध्याकाण्ड से उद्धृत है।

प्रसंग - इन पंक्तियों में भरत जी का प्रयाग के संगम में नहाने का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - भरत जी ने तीर्थराज प्रयाग या त्रिवेणी में गोते लगा-लगाकर स्नान किया और फिर अपने समस्त समाज के साथ मुनि को सिर नवा कर प्रणाम किया। (उन्होंने ऋषि से चलने की आज्ञा माँगी।) ऋषि की आज्ञा और आशीर्वाद सिर पर धारण किये हुए उन्होंने ऋषि को दंडवत् प्रणाम करके बहुत विनती की। इसके पश्चात् वे रास्तों को अच्छी तरह जानने वाले पथ-प्रदर्शकों को अपने साथ लेकर चित्रकूट के रास्ते पर ध्यान लगाये हुए चल पड़े। वे राम सखा निषादराज के कंधे का सहारा लिए हुए ऐसे चल रहे हैं मानों प्रेम ही साकार होकर या शरीर धारण कर चल रहा हो उनके पैरों में न जूते हैं न उनके सिर पर छाया है। उनका प्रेम, नियम, व्रत, धर्म सब छल-कपट रहित है। वे अपने मित्र से लक्ष्मण, राम और राम और सीता की कहानी पूछते है। उनके पूछने पर सखा भी बहुत ही कोमल वाणी में सब कुछ बताता चलता है।

विशेष-
(1) राम भक्त भरत के लिए प्रकृति ने स्वयं ही अपना कोमलरूप धारण कर लिया और जितना सुख वह उनको पहुँचा सकती थी उतना पहुँचाया।
(2) इनमें अनुप्रास, उत्प्रेक्षा तथा अत्युक्ति अलंकार है।

 

(13)

कपटी कायर कुमति कुजाती, लोक वेद बाहर सब भाँती।
राम कीन्ह आपन जबहीं ते, भयउँ-भुवन भूषन तब ही लें।
देखि प्रीति सुनि विनय सुहाई, मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई।
कहि निषाद निज नाम सुबानी, सादर सकल जोहारी रानी।
जानि लखन सम देहि असीसा, जिअहु सखी सम लाख बरीसा।
निरखि निषादु नगर नर नारी, भये सुखी जनु लखनु निहारी॥
सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' महाकाव्य के अयोध्याकाण्ड से ली गयी हैं।
प्रसंग - इस पद्य में कवि ने निषादराज के चरित्र पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या - मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और नीच जाति का हूँ और लोक तथा वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ। पर जब रामजी ने मुझको अपनाया है तभी से मैं संसार का भूषण हो गया हूँ। निषादराज की प्रीति देखकर और उनके सुन्दर विनय को सुनकर भरतजी के छोटे भाई उनसे फिर मिले। तब निषादराज ने अपनी सुन्दर वाणी या विनयपूर्ण वाणी में अपना नाम बताकर आदरपूर्वक सभी रानियों को प्रणाम किया। सब उसे लक्ष्मण समझकर आशीर्वाद देती हैं कि तुम लाख वर्ष तक सुखपूर्वक जिओ। अवधपुरी के स्त्री-पुरुष निषादराज को देखकर ऐसे खुश हुए मानो उन्होंने लक्ष्मण को देख लिया हो। सब कहते हैं कि इसने अपने इस जीवन का लाभ उठाया है क्योंकि राम जैसे सज्जन व्यक्ति इससे बाँह भर- भर भेंटें हैं। निषाद अपने भाष्य की बड़ाई सुन-सुनकर मन में बहुत हर्षित हुआ और सबको अपने साथ लिवा ले चला। उसने अपने सब सेवकों को इशारा किया। वे सब अपने स्वामी का रुख देखकर चले और उन्होंने वृक्षों के नीचे, तालाब, बागों तथा वन में उनके ठहरने के लिये घर बना दिये।

विशेष- इन पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार के माध्यम से नाद- सौन्दर्य को उभारा गया है।

 

(14)

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवक परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरू अधिकाई॥
जद्यपि सम नहिं रागन रोषू / गहहिं न पाप पूनु गुनदोषू॥
करम प्रधान विस्व करि राखा जोजस करइ सोतस फल चाखा।
राम सदा सेवकरुचि राखी। वेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जिय जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीत सुहाई॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस' महाकाव्य के अयोध्याकाण्ड से ली गयी हैं।

प्रसंग - इस अवतरण से देवराज इन्द्र को सम्बोधित करते हुए कवि ने भरत के माहात्मा को स्पष्ट किया है।

व्याख्या - हे देवराज इन्द्र ! मेरा उपदेश सुनें। श्रीराम को सेवक परम प्रिय है। दास की सेवा वे सुख मानते हैं। सेवक के बैर से उनके बैर की अधिकता होती है। श्रीराम यद्यपि समत्व बुद्धि युक्ति हैं, न (उनमें) राग है और न रोष है तभी न वे पाप, पुण्य, गुण, दोष को ग्रहण करते हैं। सम्पूर्ण विश्व को उन्होंने कर्म प्रधान करके रखा है, जो जैसा करता है, वह उसका वैसा फल चखता है फिर भी, भक्त और अभक्त के हृदय की भावना के अनुसार श्रीराम सम तथा विषम आचरण करते हैं। यद्यपि वे गुणातीत, निर्लिप्त, अहंकारशून्य तथा एक रस हैं, फिर भी भक्तों के प्रेम से विवश श्रीराम सगुण हुए। श्रीराम ने सदा सेवक के रुचि की रक्षा की है, इसके लिए वेद, पुराण, साधु, देवगण सभी साक्षी हैं। ऐसा हृदय में समझकर कुटिलता छौड़े और भरत के चरणों में भली लगने वाली प्रीति करो। हे देवपालक इन्द्र। श्रीराम के भक्त दूसरे के हित में लीन रहते हैं, दूसरे के दुःख में दुखी एवं दयालु होते हैं। आप भक्त शिरोमणि भरत से न डरें।

विशेष-

(1) सूक्ष्ममयी भाषा का सुगम एवं सरस प्रयोग किया गया है।
(2) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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